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कमाल की औरतें २ / शैलजा पाठक

औरतें भागती, गाडिय़ों से तेज़ भागती हैं
तेज़ी से पीछे की ओर भाग रहे पेड़
इनके छूट रहे सपने हैं
धुंधलाते-से...पास बुलाते-से...
सर झुका पीछे चले जाते-से...

ये हाथ नहीं बढाती पकडऩे के लिए
आंखों में भर लेती हैं
जितने समा सकें उतने

भागती-हिलती-कांपती-सी चलती गाड़ी हो
या कैसी भी परिस्थितियां हों जीवन की
ये निकाल लेती हैं दूध की बोतल
खंखालती हैं
दो चम्मच दूध और
आधा चम्मच चीनी का परिमा‡ण याद रखती हैं
गरम-ठंडा पानी मिलाकर
बना लेती हैं दूध
दूध पिलाते ब‘चे को गोद से चिपका
ये देख लेती हैं बाहर भागते-से पेड़
इनकी आंखों के कोर भीग जाते हैं
फिर सूख भी जाते हैं झट से

ये सजग सी झटक देती हैं
डोलची पर चढ़ा कीड़ा
भगाती हैं भिनभिनाती मक्खी
मंडराता मच्छर
तुम्हारी उस नींद वाली मुस्कान के लिए
ये खड़ी रहती हैं एक पैर पर

तुम्हारी आंख झपकते ही
ये धो आती हैं हाथ-मुंह
मांज आती हैं दांत
खंखाल आती हैं दूध की बोतल
निपटा आती हैं अपने दैनिक कार्य
इन जरा-से क्षणों में
ये अपनी आंख और अपना आंचल
तुम्हारे पास ही छोड़ आती हैं

ये अंधेरे बैग में अपना जादुई हाथ डाल
निकाल लेती हैं दवाई की पुडिय़ा
तुम्हारा झुनझुना
पति के जरूरी कागज़
या˜त्रा की टिकिट
जिसमें इनका नाम सबसे नीचे दर्ज़ है

अंधेरी रात में
जब निश्चि‹त सो रहे हो तुम
इनकी गोद का ब‘चा
मुस्काता सा चूस रहा है अपना अंगूठा
ये आंख फाड़ कर बाहर के अंधेरे को टटोलती हैं
जरा सी हथेली बाहर कर
बारिश को पकड़ती हैं
भागते पेड़ों पर टंगे अपने सपनों को
झूल जाता देखती हैं

ये चिहुकती हैं बड़बड़ाती हैं
अपने खुले बालों को कस कर बांधती हैं
तेज़ भाग रही गाड़ी की बर्थ नम्बर तरेपन की औरत
सारी रात सुखाती रही ब‘चे की लंगोट नैपकिन
खिड़कियों पर बांध बांध कर
भागते रहे हरे पेड़
लटक कर झूल गए सपनों की चीख
बची रही आंखों में
भीगते आंचल का कोर
सूख कर भी नहीं सूखता
और तुम कहते हो
कमाल की औरतें हैं...
ना सोती हैं
ना सोने देती हैं
रात भर ना जाने €क्या-€क्या खटपटाती हैं!