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कमाल की औरतें ३० / शैलजा पाठक

दर्द को कूट रही हूं
तकलीफों को पीस रही हूं
दाल सी पीली हूं
रोटी सी ƒघूम रही हूं
गोल-गोल
तुम्हारे बनाये चौके पर

जले दूध सी चिपकी पड़ी हूं
अपने मन के तले में
अभी मांजने हैं बर्तन
चुकाना है हिसाब
परदे बदलने हैं
आईना चमकाना है
बिस्तर पर चादर बन जाना है
सीधी करनी हैं सलवटें

बस पक गई है कविता
परोसती हूं

ƒघुटनों में सिसकती देह
और वही
चिरपरिचित तुम।