Last modified on 12 अप्रैल 2020, at 02:18

कमाल है... कुछ भी कमाल नहीं / रणविजय सिंह सत्यकेतु

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:18, 12 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रणविजय सिंह सत्यकेतु |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

स्टाइल छोड़ो
वह तो भड़ुआ भी मारता है
बोली-बानी को भी दरकिनार करो
लुम्पेन भी माहौल देखकर मुँह खोलता है
देहरी के भीतर गुर्राना
डीह छोड़ते ही खिखियाना
किसी मसखरे के वश में होता है
सिर पर टाँक लेने भर से क़ाबिलियत आती
तो हर मोरपँख बेचने वाला कन्हैया न होता ?
पुरानी कहावत है
सावन के अन्धे को सब हरा दिखाई देता है
तो फिर कब तक यूँ ही बहकने दिया जाए
पतझड़ को वसन्त कहते क्योंकर सुना जाए
कुल जमा ये कि
हर बात पे जाने दिया
तो साया भी साथ छोड़ देगा
बहुत हुआ...
अकर्मण्य ही समझो
कुछ किया क्या ?
बस 'दूध-भात' सुरकता जा रहा है
इसलिए कहता हूँ, प्यारे !
खाल उतारो
शर्तिया सियार निकलेगा ।