Last modified on 16 अगस्त 2013, at 09:23

कम हो रहा है हर दिन इक दिन ये ज़िन्दगी का / बेगम रज़िया हलीम जंग

कम हो रहा है हर दिन इक दिन ये ज़िन्दगी का
नज़दीक आ रहा है अब क़ुर्बतों का लम्हा

ये जो सफ़र बचा है यादों में तेरी गुज़रे
जाऊँ मैं आँसुओं में भीगी वहाँ सरापा

पर्दा तो जिस्म का है क्यूँ रूह से हो पर्दा
मैं तेरे पास आऊँ तू मेरे पास आ जा

सब ऐब ढाँप देना इस आस्या के या रब
जब भी मुझे बुलाना बस शर्म इतनी रखना

यूँ ही बहुत गँवाया बेकार वक़्त मैंने
अल्लाह आख़िरत में रूसवाई से बचाना

रहमत से तेरी मुमकिन ना-मुम्किनात भी हैं
जो हैं अज़ीज तुझ को उन में शुमार करना