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करक्वालै उड़ि गयीं / भारतेन्दु मिश्र

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करक्वालै उड़ि गयीं
बीति गै बरखा कै बेला
बूढ़े बरगद ते उठिगा है
चिरियन का मेला।

बीति रहा हमरिही द्याँह पर
आजु कुँवारी घाम
केतनौ ध्यान धरौ ई बेरा
हुइ-हुइ जाति जोखाम

कातिक आय रहा
लरिकउनू घूमै निकरि लिहिन
हमरे जिउ का डारि गये हैं
बोउनी कयार झमेला।

हाँथ पाँव मा जान नहीं है
हुइगेन ठवर-टक्करी
मुला काम की बेरिया है
घर बइठे, आखिर का करी?

जब लौ पौरुख है
तब लौ कुछु ते कुछ कीन चही
कइसेव दाना परै ख्यात मा
होय न ठेलिम ठेला।

नाते रिस्तेदार सबै हैं
लूटै का मुंहु बाए
राम-राम कइके दिन बीते
सेतुआ पिये-पियाए

अब बेसार का नाजु नहीं है
करजै लेक परी
आँसौं सूखा परा बचा ना
घर मा एकौ धेला।