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करता हूँ पेश आप को नज़राना ए ग़ज़ल / अजय अज्ञात

करता हूँ पेश आप को नज़राना-ए-ग़ज़ल
नायाब मुश्कबार ये गुलदस्ता-ए-ग़ज़ल

तल्खाबे-ग़म न पीजिये हो तश्नगी अगर
भर-भर के जाम पीजिये पैमाना-ए-ग़ज़ल

करना जो चाहते हो हकीक़त से सामना
रक्खो ज़रा-सा सामने आईना-ए-ग़जल

मतले से ले के मक्ते तलक डूब कर कहा
कहते हैं लोग मुझ को तो दीवाना-ए-ग़ज़ल

ज्यूं ही ग़ज़ल की शमअ् को रौशन किया तभी
उड़ कर कहीं से आ गया परवाना-ए-ग़ज़ल

जब से ग़जल को माँ का सा दर्ज़ा दिया मुझे
जग ने खिताब दे दिया शहज़ादा-ए-ग़जल

मुश्किल था काम फिर भी फकत एक शेर में
‘अज्ञात' ने सुना दिया अफसाना-ए-ग़ज़ल