भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

करम है, दायरा दिल का बढ़ा तो / इरशाद खान सिकंदर

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:09, 15 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार= इरशाद खान सिकंदर }} {{KKCatGhazal}} <poem> करम ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

करम है, दायरा दिल का बढ़ा तो
मुझे भी इश्क़ ने आकर छुआ तो

मिरे अल्लाह मैं तो खुश हूँ लेकिन
कोई मेहमान घर पर आ गया तो ?

तुम्हारी हेकड़ी भी देख लेंगे
करो तुम ज़िंदगी का सामना तो

मियाँ अंजाम अबके सोच लेना
हमारे सर पे फोड़ा ठीकरा तो !

न मेले जा सका इस ख़ौफ़ से मैं
मिरा बच्चा खिलौना माँगता तो ?

तख़य्युल के वरक़ पलटो सँभलकर
हुआ गर ज़ख्मे-दिल फिर से हरा तो ?

चलो आदाबे-ग़म भी सीख ही लें
अगर खुशियों ने धोका दे दिया तो ?

हरे पत्तों से तुम धोका न खाना
शजर अंदर से निकला खोखला तो ?

अभी ये शाम को क्या हो गया है
अभी मैं दिन में था अच्छा-भला तो

ये तय कर लो अभी ही क्या करेंगे
हमारे बीच आया तीसरा तो ?

हुई थी एक बस परवीन शाकिर
नदारद है ग़ज़ल से शायरा तो

कहाँ से बाज़ुओं में लाऊँ ताक़त
मैं अपना नाम रख लूँ सूरमा तो

तुम्हें देखा सो क्यों कुछ और देखूँ
मज़ा हो जाय पल में किरकिरा तो

उखड़ जायेंगे ग़म के पाँव फ़ौरन
तबीयत से तू पल भर मुस्कुरा तो

मगर हस्सास दिल है तू “सिकंदर”
ज़रा लहजा है तेरा खुरदुरा तो