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कराकास / एउखेनिओ मोनतेखो / राजेश चन्द्र

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इमारतें इतनी ऊँची हो गई हैं
कि कुछ भी देखा नहीं जा सकता मेरे बचपन का ।
मैंने खो दिया है अपना आँगन इसके मन्थर बादलों के साथ
जहाँ रोशनी गिरा दिया करती थी सारस के पँख,
मिश्र की मुलायम शुद्धताएँ ।

मैंने खो दिया है
अपना नाम और सपना घर का ।

कठोर ढाँचे इमारतों के, मीनारों पर मीनारें
छिपा रही हैं हमारे पहाड़ों को हमसे ।
कोलाहल बढ़ता हुआ हज़ार मोटरगाड़ियों का प्रत्येक कान के लिए,
चिंघाड़ते हज़ार पहियों का समुच्चय प्रत्येक पांव के लिए,
उनमें से प्रत्येक जानलेवा ।

लोग भागते हैं उनकी आवाज़ सुनकर
लेकिन आवाज़ें हैं कि भटकती हैं
टैक्सियों का पीछा करती हुईं ।
कितनी-कितनी दूर थेब्स, ट्रॉय, निनवेह से
या कि किरचों से उनके सपनों की,
कराकास, तुम कहाँ हो ?

मैंने खो दी है अपनी परछाईं
और अहसास इसकी शिलाओं का ।
कुछ भी तो दिखायी नहीं पड़ता अब मेरे बचपन का ।

मैं घूमता-फिरता रहता हूँ इसकी गलियों से होकर
एक दृष्टिहीन आदमी की तरह,
हर एक दिन होता हुआ कुछ और भी अकेला ।

इसका विस्तार वास्तविक है,
अक्खड़ और ठोस कँक्रीट का ।
सिर्फ़ मेरा ही इतिहास बन कर रह गया है एक झूठ ।