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कर्फ़्यू / सुभाष शर्मा

कर्फ्यू ओढ़ लेता है सन्नाटा
तोड़ देता है आदमी का
सड़कों से रिश्ता
सन्नाटा चीरती है
सिर्फ कुत्ते की आवाज
हमारा शहर बन जाता है
कुत्तों का शहर ।
कर्फ्यू जुड़ जाता है
इतिहास के एक
अध्याय के रूप में
अपने-अपने नाप की
टोपी की तरह पहन
लेते हैं लोग ।

कर्फ्यू की घोषणा अभी-अभी हुई
भेड़िया के आने को सुन
लोग बन गए भेंड़ें
इकलौता भाई घर न आ सका
कल राखी है
इस दुनिया में सिर्फ बहन है
जिसे कर्फ्यू से ज्यादा चिंता है
राखी की
उसे विश्वास है—
कर्फ्यू चाहे शहर का हो
या ससुराल का
तोड़ सकते हैं
उसे राखी के
धागे ।

तीन बार छँट चुकी लड़की
और उसकी माँ चिंतित है –
कैसे आ सकेंगे कल लड़की देखने वाले
माँ झुँझलाती है/कोसती है –
तेरी तकदीर खोटी है कलमुँही
जन्मते ही बाप खा गई
तीन बार छँट चुकी
लगन खत्म हो रही
फिर निहारो साल भर/निगोड़ा कर्फ्यू लगन में ही आना था !

कर्फ्यू लगने पर
पहली बार बच्चों ने कहा था –
"पापा ! कर्फ्यू अच्छी चीज है
स्कूल नहीं जाना पड़ता,"
पर दूसरी/तीसरी/चौथी बार
मौका पाने पर भी
छुट्टी की खुशी
न आँखों में छलकती है
न हाथों में फुदकती है
न पैरों में उछलती है
बच्चे पूछते हैं –
"माँ ! इस छुट्टी में
यूनीफार्म वाले
हमें खेलने क्यों नहीं देते ?"
माँ आँसुओं से जवाब देकर
दाहिने हाथ की तर्जनी
सीधे अपने मुँह पर रखकर
घूरने लगती है
तब बच्चे निरुत्तर होकर
कहते हैं –
"माँ ! कल से हम भी
स्कूली यूनीफार्म नहीं पहनेंगे !"
बच्चे समझ गए हैं --
घर और जेल का फर्क मिट गया है
दिखाई देता है चारों तरफ
धुआँ-ही-धुआँ
मुँह के आगे बस खाई या कुआँ
बगल में राख बने
अधजले मकान या टूटी दुकान,
चेहरों पर शैतानों के
पंजों के निशान
धब्बों और शर्म से झुकी आँखें,
पक्षियों के उजड़े घोंसले
कर्फ्यू की मार से सिकुड़ी सड़कें
झुका आसमान
मुरझाये बादल ।
जब भी लोग देखते हैं
इंसानों को धुएं में तब्दील होते
मकानों का हवन होते
वे अपने चौखटों से बाहर नहीं निकलते
कि कहीं उन्हें भी
धुआँ न समेट ले !
कर्फ्यू उठने पर
शहर नहीं पहचानता हमें
स्कूल की दीवारें बच्चों की
आवाज सुनकर
हो जाती हैं चौकन्नी
हमारे मुल्क का दिल
मुरझा जाता है पान के पत्ते की तरह
तब से सपनों में भी शहर
बौखलाता/काँपता-सा नजर आता है ।