जूठन के लालच में
घिनौने सियारों के झुण्ड ने
तुम्हारे मज़बूत सीने पर उकेरा था
कलंक का निशान ।
फिर भी अभिमान भरे सीने में
छिप-छिपकर धीरे-धीरे
जमने लगा गुस्सा, नफ़रत, मज़बूती से ।
मज़दूरों का कलकत्ता है यह
कलकत्ता जानता नहीं है
माफ़ करना ।
शपथ आग हो गई
फैली बदले की चिंगारी
चारों दिशाएँ लाल हो गईं
लाल-लाल परचमों से ।
कलकत्ता
रोता नहीं है,
कलकत्ता बदला लेना जानता है ।
1972
मूल बांग्ला से अनुवाद : कंचन कुमार