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कलगी बाजरे की / अज्ञेय

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हरी बिछली घास।

दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।



अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका

अब नहीं कहता,

या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,

टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो

नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है

या कि मेरा प्यार मैला है।



बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।

देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।



कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।

मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :

तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो, इसी जादु के-

निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूं-

अगर मैं यह कहूं-



बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा मे कलगी छरहरे बाजरे की ?



आज हम शहरातियों को

पालतु मालंच पर संवरी जुहि के फ़ूल से

सृष्टि के विस्तार का- ऐश्वर्य का- औदार्य का-

कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है,

या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी

अकेली

बाजरे की।



और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूं

यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है-

और मैं एकान्त होता हूं समर्पित



शब्द जादु हैं-

मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ?