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कलम दौड़ी जा रही है / अंजना वर्मा

जनवरी का महीना है
आधी रात से ऊपर का वक्त
सन्नाटा लगा रह है गश्त
झन्न बोल रही है उसकी सीटी
इंसान जड़ हो गया है बिस्तर में
पेड़ों की पत्तियाँ भी जमकर
काठ हो गई हैं
ठंड के बिच्छुओं के अनगिनत डंकों से
सड़क हो गई है अचेत

नीली चादर पर
दुधिया झीनी मशहरी में
चाँद सोया हुआ है
गहरी नींद में

जाग रही है तो बस एक बेचैन कलम
जो लगातार भागी जा रही है
ऐम्बुलेंस की तरह
शब्दों का बजाती हुई हार्न
और चीखती हुई
क्योंकि उसे बचाना है जीवन

जब तक कलमें दौड़ रही हैं
तब तक एक-एक जान है अनमोल
भरोसा रखो उन कलमों पर
जो सोती नहींं
अभी भी कितनी आँखों में नमी है
और कितने हाथ सक्रिय हैं
किसीको सँभालने के लिए
यह सब इसलिए कि
कलमें जाग रही हैं