भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कलियाँ / उषा उपाध्याय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कलियों ने आँख खोली तो अफवाह फैल गई,
फूलों की डार तोड के दुनिया ये खैल गई ।

अफवाह का अब इस नगर में ढोल बजेगा,
जहाँ धुआँ भी नहीं है, अंगार जलेगा,
ग़ालिब बडी गुस्ताख़ है दुनिया की ये रसम,
शैतान बेफ़िक्र फिरे अच्छाई डर गई ।

शबनम का ये गुब्बार गुलाबी उडाएगी,
माहताब को भी दो घड़ी तो ये जलाएगी,
जल्लाद की तलवार को मासूम बताएगी,
सच्चाई को नापाक कहे के दूर हो गई ।

दस्तूर है दुनिया का कभी भी न चैन दे,
ज़ख़्मी जिगर को छाँव रत्ति भर कभी न दे,
दलदल को बहुत प्यार से सिर पर चढ़ाएगी,
और बेतमा बन पद्मजा पर पैर रख गई ।

मियाँ बडी क़ातिल है रसम इस सियासी की,
जैसी अदा क़ातिल है सनम और शराब की,
फिरका बनाके यह करे करतूतें ढेर-सी,
फिरदौस बन के फिर यही लो दिल को ले गई ।

मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं कवयित्री द्वारा