भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कलियों की तरह मेरी, गमकेगी ज़िंदगी / अवधेश्वर प्रसाद सिंह
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:20, 19 दिसम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अवधेश्वर प्रसाद सिंह |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कलियों की तरह मेरी, गमकेगी ज़िंदगी।
बागों की बहारों में झूमेगी ज़िंदगी।।
अपने तो सदा गढ़ते मुझपर ही तोहमतें।
टूटेंगे नहीं फिर भी, निखरेगी ज़िंदगी।।
कोशिश तो हुई है ही, लिखने की ये ग़ज़ल।
महफ़िल की इनायत से, सुधरेगी ज़िंदगी।।
श्रोता जो हमारे हैं, सुनते हैं शायरी।
सुनकर ये ग़ज़ल अबकी, बदलेगी ज़िंदगी।।
पढ़ते हैं किताबों में, लिखते हैं बन्दगी।
औरों की तरह अपनी चमकेगी ज़िंदगी।।