भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कल्पत रहिथे मन / पीसी लाल यादव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:33, 26 अगस्त 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पीसी लाल यादव |अनुवादक= |संग्रह=मै...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँखी म नींद नहीं दिल म नहीं चैन।
कल्पत रहिथे मन, सुने बर तोर बैन॥
तिहार-बार देखत सबे हर नाहकगे,
दुख-पीरा के मारे सुख बइरी बाँहकगे।
का करँव बता तहीं कटे न दिन-रैन?
कल्पत रहिथे मन, सुने बर तोर बैन।
टूट जही साँस तभो आस नई टूटे,
जीयत-मरत ले तोर बिस्वास नई टूटे।
जोहत हँव बाट तोर बइठे नाहर लैन
कल्पत रहिथे मन, सुने बर तोर बैन॥
महमई बिना जइसे फूल के मान नहीं

काया हे बिरथा जब तक ओमा परान नहीं
मंदरस बिना कोनो काम के न मैन।
कल्पत रहिथे मन, सुने बर तोर बैन।