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कल्पना के बहाने / रंजना जायसवाल

कल्पना,
तुम्हारी असमय मृत्यु पर
रो रहे हैं ज़ार-ज़ार
तुम्हारे ‘मूल’ के लोग
ये वे ही लोग हैं
जो हजारों-हजार कल्पनाओं को
गर्भ में ही मार डालते हैं
वही लोग हैं ये
जो औरत की समझदारी पर
सवालिया निशान लगाते हैं
खदेड़ते रहते हैं
अपने अधिकार क्षेत्र से
कोई मायने नहीं रखती जिनके लिए
स्त्री की क्षमता, प्रतिभा और कार्यकुशलता
परम शत्रु हैं
स्त्री की स्वतन्त्र पहचान के
ये वही लोग हैं
जिनसे नहीं सुरक्षित
दुधमुँही से वृद्धा तक
ये वही हैं
जो गर्भवती स्त्री का बलात्कार कर पेट फाड़ते हैं
टाँग कर भ्रूण को बरछी पर
जयघोष करते हैं
जिनकी शालीन सभ्यता ढहने लगती है
स्त्री की नज़र उठते ही
आरामदेह कपड़ों से जिनकी लाज का
चीरहरण हो जाता है।
अच्छा हुआ
जो तुम कहीं और रही वरना...
नाप सकती क्या आकाश की ऊँचाइयाँ!
पूरा जीवन गुजर जाता अस्तित्व बचाने में ही।