भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कल जिन हाथों में हमने सुर्ख चूड़ियों को खनकते देखा / पल्लवी मिश्रा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:08, 30 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पल्लवी मिश्रा |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कल जिन हाथों में हमने सुर्ख चूड़ियों को खनकते देखा,
आज सूनी मांग लिये उसी बेवा को बिलखते देखा।

जो काँधों पर अपनी सारे जग का बोझ उठाए फिरता था,
आज उसी शख्स को हमने काँधों पर गुजरते देखा।

जिनके शोर-शराबे से कल तक, गूँजता था घर-आँगन,
आज उन बच्चों को न खेलते, न कूदते, न हँसते देखा।

उस बाप के दर्द का अंदाजा भला कोई क्या करे,
खुद लगाकर आग जिसने, बेटे की चिता को सुलगते देखा।

उम्र के अंतिम पड़ाव पर खड़ी, उस माँ के दुःख का अंत नहीं,
जिसने नजर के सामने औलाद के औलाद को मरते देखा।

वादा किया था उसने बहन से कभी डोली पर उसे बिठाने का
मर गईं हसरतें बहन की, जब उसने भाई को वादे से मुकरते देखा।

क्या भाई, क्या दोस्त, क्या रिश्तेदार-थे सभी कातर,
किसी को तड़पते, किसी को रोने, किसी को सिसकते देखा।

बरपा कर यह कहर, कलेजा खुदा का भी फट गया होगा,
सच! आँगन में आज हमने चंद कतरों को बरसते देखा।