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कल वस्ल में भी नींद न आई तमाम शब / 'ममनून' निज़ामुद्दीन
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कल वस्ल में भी नींद न आई तमाम शब
एक एक बात पर थी लड़ाई तमाम शब
ये भी है ज़ुल्म तो कि उसे वस्ल में रहा
ज़िक्र-ए-तुलू-ए-सुब्ह-ए-जुदाई तमाम शब
किस बे-अदब को अर्ज़-ए-हवस हर निगह में थी
आँख उस ने बज़्म में न उठाई तमाम शब
याँ इल्तिमास-ए-शौक़ वहाँ ऐहतिराज़-ए-नाज़
मुश्किल हुई थी ओहदा-बराई तमाम शब
क्या सर पे कोह-कन के हुई बे-सुतूँ से आज
‘ममनूँ’ सदा-ए-तीशा न आई तमाम शब