भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कल / हरीश करमचंदाणी

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:37, 26 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>पीछे मुड़-मुड़ कर देखना चाहता हूँ पर नहीं देखता देखता हूँ तो आग…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पीछे मुड़-मुड़ कर देखना चाहता हूँ
पर नहीं देखता
देखता हूँ तो आगे
नया कुछ जो नहीं देखा अब तक
आगे ही तो हैं
हाँ ,आगे ही तो हैं
जिसे पा लेने को चलते हैं सब
नहीं हैं जो मरीचिका
तय हैं
आगे हैं
समय की अनंत नदी
जिसमे बहता जल
कल कल
होगा अपूर्व अनुपम
हाँ ,आने वाला कल