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कविताई / राजेन्द्र देथा

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पुष्प गंध, मकरंद सी खुश्बू
वनों की बीहड़ता में मायूसी का वर्णन
उपमाओं से अलंकारों
बिम्बों से प्रतिबिंबो
प्रेम प्यास के गीतों
राग-बिरह की नज्मों
आदि से बनी कविताएँ
उन कविताओं से
कभी श्रेष्ठ नहीं कहीं जाएंगी
जिन कविताओं में -
चूल्हे का धुआं उठता है
गांव की माटी महकती है
रेणु सी आंचलिकता बन उठती है
बूढ़ी औरत की पगथलियों के
दर्द उकेरे जाते है
खेत के पसीने की गंध
परिष्कृत हो दाना बन पडता

लेकिन मालिक! प्रेम का जमाना है
दरअसल आह! और वाह! यहीं होती है!