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कविता की क़िताब / सिद्धेश्वर सिंह

ऊँचे आकाश में पींग भरती पतंग
बार-बार झुक रही है घर की ओर

खिड़की की जाली पर
ठोर रगड़ रही है एक नीली चिड़िया

पीपल का एक हरा पता
चक्कर काटते-काटते
गिर कर थम गया है गेट के आसपास

अभी तक जाग रही है
सुबह जलाई गई अगरबती की सुवास

रह-रह कर सिहर रहे हैं
खिड़की-दरवाजों के परदे

गमले में खिल गया है
अधखिला लाल फूल

कुछ खास है यहाँ आज शायद...!

ओह , मेज पर खुली पड़ी है कविता की क़िताब
और मोबाइल में अवतरित हुआ है
तुम्हारा टटका-सा एस० एम० एस० ।