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कविता की डायरी / नामदेव ढसाल

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अन्तिम मुकाम तक आ गया
फिर भी दरवाज़ा नहीं खोल रही
नक्षत्रों के अक्षर इस पुराने काग़ज़ पर किस तरह लिखूँ ?

मेरी कविता की डायरी
इसके पहले मैंने कबीर को दी थी
इस बाज़ार में कबीर नहीं
मैं ख़ुद ही खड़ा हूँ

मुक्ति का वचननामा यह रूढ़ि नहीं करती है क़बूल
इस अन्धेरे के साम्राज्य में अब इच्छाओं के भी
पँख उग आए हैं !

मूल मराठी भाषा से अनुवाद : संजय भिसे