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कविता के बाहर / शिवकुटी लाल वर्मा

तुम एक कविता लिखते हो
और एक बिच्छू अपना नुकीला डंक लिए
तुम्हारी ओर दौड़ पड़ता है

तुम दूसरी कविता लिखते हो
और एक सर्प तुम्हारी ओर बढ़ने लगता है
फन काढ़ कर वह तुम्हारे हाथों की ओर झुकता है

तुम तीसरी कविता लिखते हो
और एक भेड़िया तुम्हारी ओर देखकर गुर्राता है
तुम कोशिश करते हो एक और कविता लिखने की
और एक बर्बर समूह तुम्हारी ओर झपट पड़ता है

बेहतर क्या है
आज के समय में कवि होना
या एक बिच्छू, एक साँप, एक भेड़िया
या एक बर्बर समूह बन जाना ?

बताओ, कवि !
बिच्छू, साँप, भेड़िए और बर्बर समूह
तुम्हारी कविताओं के भीतर तो मरते हैं
पर क्यों नहीं मरते तुम्हारी कविताओं के बाहर ?

कवि ! तुम मौन क्यों हो ?