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कविता रचती स्‍त्री / रणेन्‍द्र

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(1)
आकाशगंगा संग
अन्तरिक्ष में
नाचते हैं शब्द

अपने आत्मा की उजास
और रक्त के ताप से
करती है उनका आह्वाहन

उसकी ही जटाओं में
अवतरित होती है
शब्द-भागीरथी

जिन्हे हौले से
पृथ्वी पर सजा देती है

विहँस उठती है प्रकृति
वनों में किलकारी
भरता है वसंत
ठंडक उतरती है
गरम थपेड़ों की नाभि में

अपने इन एकान्त पलों में
ब्रह्मा को बाँयी ओर खिसका
खुद स्रष्टा होती है स्त्री
 
(2)

देह के नीले धब्बों से
चुनती है
सूखी लकड़ियाँ
स्मृतियों से पके कोयले

आत्मा के चकमक पत्थर से
सुलगाती है आग

धुँआने के बाद
धधकती है अँगीठी

खदकते हैं शब्द
सींझती है कविता
 
(3)

आँखे खोलती,
चकरघिन्नी की तरह
नाचती यह नन्ही पृथ्वी
हर पहर
सर पर तपता है सूर्य
अपनी ही छाया में
ढूँढती है पनाह

अँधेरी कोठरी के
सीलन भरे कोने में है
उसका बोधिवृक्ष
रसोईघर के
अपने पिंजरे की सलाखों
बिस्तर के काँटों
कान में बहते शीशों
और आत्मा की खरोंचों को
निचोड़ कर
एक शब्द टपकाती है
‘चाँदनी’
और कागज में
आहिस्ता उतर जाती है
जैसे उतरता है दूध
गेहूँ के दानों में
 
(4)

स्वप्न सलोने नहीं
पुतलियों में तैरते हैं
घर और बच्चे
सूखे पत्ते की तरह
काँपता रहता है घर
सिहरते बच्चे
जिन्हे दस-दस हाथों से थामे
धूप-हवा-बतास सहती
मुस्काती रहती है
देह के आकाश में
कुछ स्थायी रंग हैं
नीला, गहरा-नीला, काला
और लाल
(लाल के भी कई-कई शेड्स)
अपनी मुस्कान के जादू से
सब गायब करना चाहती है
बस चाँद-चाँदनी दिखना चाहती है
दिखना चाहती है हर पल हरा
किन्तु दीवार की दरार में
फँसी दिखती है आत्मा
अपने ही रक्त में डूबी
गलने लगते हैं मुखौटे
टूटने लगता है तिलिस्म
- - - - - - - - -
तब वह लेखनी उठाती है
 
(5)

बाहर के दुर्दान्त
खूँखार भेड़ियों के सामने
प्यारा लगता है
घर का अपना भेड़िया
नन्हे नाखून, छोटे दाँत
गद्देदार झबरीले पंजे
सब कितने प्यारे
व्रत-उपवास
छत्तीसो स्वाद के व्यंजन
कपास से हल्का बिस्तर
रेशम सी मुलायम देह
परोस
मीठी नींद सुलाती है
नींद में होता है भेड़िया
तो नेलकटर उठाती है
किन्तु गद्देदार पंजो से,
गायब हो जाते हैं नाखून
झबरीले ललाट के ठीक पीछे
रेडियम की तरह दमकते
क्रोमोजोम्स में धुल रहे थे नाखून

तब खिड़की खोल
डायरी उठाती है
चाँदनी में लोरी की तरह
कविता गुनगुनाती है स्त्री