Last modified on 10 नवम्बर 2009, at 11:00

कविता से बाहर / उत्पल बैनर्जी

एक दिन अचानक
हम चले जाएँगे
तुम्हारी इच्छा और घृणा से भी दूर
किसी अनजाने देश में
और शायद तुम जानना भी न चाहो
हमारी विकलता और अनुपस्थिति के बारे में!

हो सकता है
इस सुन्दर पृथ्वी को छोड़कर
हम चले जाएँ
दूर... नक्षत्रों के देश में
फिर किसी शाम जब
आँख उठाकर देखो
चमकते नक्षत्रों के बीच
तुम शायद पहचान भी न पाओ
कि तुम्हारी खिड़की के ठीक सामने
हम ही हैं!

अपने वरदानों और अभिशापों में बंधे
हम वहीं दूर से तुम्हें देखते रहेंगे
अपना वर्तमान और अतीत लेकर
अपने उदास अकेलेपन में
भाषा और कविता से बाहर
सृष्टि की अन्तिम रात तक
चाहत के आकाश में

उदास और अकेले ....!