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कविता - 17 / योगेश शर्मा

तुझमें दो किस्म की गहराई थी
एक तो थी तेरे शरीर की
और एक तेरी।
एक सीमित थी एक असीमित।
जो सीमित थी उसमें से मैं कुछ न पा सका।
जो असीमित थी,
उसमें से सीपियों में बंद कविताएँ निकली।
ये कविताएँ मेरे कमरे में
गुलदस्तों की जगह सजी हैं।