भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कवि अपना कर्तव्य निभा तूँ / कुलवंत सिंह

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:30, 3 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुलवंत सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छा रहे निराशा के बादल,
अंधियारा बढ़ रहा प्रतिपल।
घुट-घुट कर जी रहा आदमी
आदमी नचा रहा आदमी।

आशा के कुछ गीत सजा तूँ,
कवि अपना कर्तव्य निभा तूँ।

मानवता लहू लुहान पड़ी,
बुद्धि चेतना से बनी बड़ी।
रक्त पिपाशा है पशु समान,
हेय मनुज अन्य, निज अभिमान।

सुन धरती का यह रोना तूँ,
कवि अपना कर्तव्य निभा तूँ।

कर्म क्रूर, पाखण्ड, धूर्तता,
विध्वंस, वासना, दानवता।
लुप्त मानव का जन से प्यार,
निज स्वार्थ वश करता संहार।

जागरण के अब गीत गा तूँ,
कवि अपना कर्तव्य निभा तूँ।

भोग में है खोया इंसान,
भूल गया है स्नेह, बलिदान।
उन्माद, शोषण, कुमति विचार,
बना यही मानव व्यवहार।

पथ मानव को उचित बता तूँ,
कवि अपना कर्तव्य निभा तूँ।

हैं जेबें भर रहे कुशासक,
जनता पिस रही क्यों नाहक।
सुविधाओं की खस्ता हालत,
पग-पग, पल-पल जीवन आहत।

उनींदी आँखे खोल अब तूँ,
कवि अपना कर्तव्य निभा तूँ।

अर्थ सभी कृत्यों का तल है,
ज्ञान, तेज, तप सब निर्बल है ।
विस्मित सभ्यता, मौन आघात,
कैसे मिटे यह काली रात?

ज्योति पुंज कोई बिखरा तूँ,
कवि अपना कर्तव्य निभा तूँ।

वाणी-अमृत, अंतर-विष है,
जीवन बना छल साजिश है।
धमनी रक्त श्वेत हुआ है,
प्रस्तर मानव हृदय हुआ है।

प्राणों में नव रुधिर बहा तूँ,
कवि अपना कर्तव्य निभा तूँ।