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कवि कुल परम्परा / बद्रीनारायण

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आकाश में मेरा एक नायक है

राहू

गगन दक्षिणावर्त में जग-जग करता

धीर मन्दराचल-सा

सिंधा, तुरही बजा जयघोष करता


चन्द्रमा द्वारा अपने विरुद्ध किए गए षड़यन्त्रों को

मन में धरे

मुंजवत पर्वत पर आक्रमण करता

एक ग्रहण के बीतने पर दूसरे ग्रहण के आने की करता तैयारी


वक्षस्थल पर सुवर्णालंकार, जिसके कांचन के शिरस्त्राण

ब्रज के खिलाफ़ एक अजस्र शिलाखण्ड

भुजाओं में उठाए

अनन्त देव-नक्षत्रों का अकेला आक्रमण झेलता


अतल समुद्र की तरह गहरा

और वन-वितान की तरह फैला हुआ

तासा-डंका बजाता

और कत्ता लहराता हुआ ।


ऋगवेद के किसी भी मण्डल के अगर किसी भी कवि ने

उस पर लिखा होता एक भी छन्द तो मुझे

अपनी कवि कुल परम्परा पर गर्व होता