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कवि तू चल उस ओर / शिशुपाल सिंह यादव ‘मुकुंद’

नर पिशाच बढ़ते जाते हैं
सोम भाग वे ही पाते हैं
वे स्वच्छन्द गीत गाते हैं
भाग्य बड़ा लख इतराते हैं
छंद सृजन कर पाप नाश हित,कवि गतिब हृदय धड़कन है
कवि तू चल उस ओर जिधर,अतिशय पीड़ा उर तड़फन है

बंधू भाव के सब सुख सपने
देख रहे हैं सब अपने -अपने
लगे स्वार्थ से पैसा जपने
सकल ऐब निज प्रतिपल ढपने
गीत न दुबे चाटकर में,अनाचार-मय कण-कण है
कवि तू चल उस ओर जिधर,अतिशय पीड़ा उर तड़फन है

सीमा पार गई मंहगाई
विकट राक्षसी घर में आई
कर में एक नहीं है पाई
देती युक्ति न एक दिखाई
मुक्तक तेरा दूर करे दुःख,जग में जो दुःख जन-जन है
कवि तू चल उस ओर जिधर,अतिशय पीड़ा उर तड़फन है

बड़े-बड़ों के घर भरते हैं
दीं कृषक भूखो मरते हैं
सेठ सकल सोना धरते हैं
तस्कर बने अहं करते हैं
तव दोहा चौपाई हर ले,जन में जो कुछ अन-मन है
कवि तू चल उस ओर जिधर,अतिशय पीड़ा उर तड़फन है

सुख पाते हैं सभी मिनिस्टर
बंगलाजिनका लक्ष्मी का घर
फूटा रंक भाग्य अति जर्जर
फूस झोपडी भी है बदतर
गायक हर ले मीत-भीति सब,सरकारी गठबंधन है
कवि तू चल उस ओर जिधर,अतिशय पीड़ा उर तड़फन है