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कहँमा के चाँद कहँमा कैले जाय, मोरो परान हरे / अंगिका लोकगीत

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   ♦   रचनाकार: अज्ञात

दुलहा अपनी सास और ससुर से अपनी दुलहन का गौना कर देने का आग्रह करता है। सास-ससुर कहते हैं- ‘मेरी बेटी प्राण से भी बढ़कर प्यारी है, इसे कैसे जाने दूँ?’ अन्त में, दुलहा उत्तर देता है- ‘अगर आपको अपनी बेटी इतनी प्यारी थी, तो आपने मेरे साथ इसका विवाह ही क्यों किया?’

कहँमा के चाँद कहँमा कैले जाय, मोरो परान हरे।
कहँमा के गँभरू<ref>वह स्वस्थ नवयुवक जिसकी अभी मसेॅ भींग रही हो</ref> गवन कैले जाय, मोरो परान हरे॥1॥
पुरुब के चाँद पछिम कैले जाय, मोरो परान हरे।
कवन पुर के गँभरू गबन कैले जाय, मोरो परान हरे॥2॥
मचिया बैठल तोहें सासुजी बरैतिन<ref>श्रेष्ठा</ref>, मोरो परान हरे।
दिनमा चारि जाय देहो धिया रे अपन, मोरो परान हरे॥3॥
हमें कैसे जाय देबै धियबा अपन, मोरो परान हरे।
हमरियो धिया बाबू परान के पेआरी, मोरो परान हरे॥4॥
सभवा बैठल तोहे सासुरजी बरैता<ref>श्रेष्ठ</ref>, मोरो परान हरे।
दिनमा चारि जाय देहो धिया ससुरारी, मोरो परान हरे॥5॥
हमें कैसे जाय देबै धिया ससुरारी, मोरो परान हरे।
हमरियो धिया बाबू बड़ रे ुलारी, मोरो परान हरे॥6॥
जौं तोर धिया ससुर बड़ रे दुलारी, मोरो परान हरे।
काहै लऽ हारल ससुर बचन अपन, मोरो परान हरे॥7॥

शब्दार्थ
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