भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहते रहे तुम / उर्मिल सत्यभूषण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘‘जाओगी तुम पहले
पार जीवन के।
खोलोगी द्वार मृत्यु के
मुझसे पहले-
जाओगी हार
बत्तीस रोगों से जूझते
बैल की न्याईं,
पाऊँगा मैं
पाथेय तेरे पथ का
हंस-हंस के खाऊँगा
तेरी मैं पेंशन
‘मरजानी’ जिऊँगा मैं
जीवन सुन्दर सा
बिन तेरे, हाँ तेरे बिन’’
चिढ़ती हुई मुझको
कस लेते पीछे से
दाढ़ी के कांटे पीछे
से चुभाते, गड़ाते
चिढ़ाते थे और भी।
‘हंसा और फंसा’ कहकर
हंसाते थे खूब
‘‘हूँ मैं ज्योतिषी, जानता हूँ सब’’
सच तो था/ पर कहते थे झूठ
बहकाते रहे मुझको।
पत्थर नुकीले, सच के
मार-मार मुझको सहना सिखाते थे
बनाते रहे सक्षम
पी-पी जाते थे पलकों के आँसू
‘‘काम बहुत आयेंगे। रखो संभाल कर
ये ही बचायेंगे जीवन के सहरा में।’’