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कहाँ गए वे दिन / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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भीड़ भरे इस कोलाहल से
कोई मुझे
पुकार गया था।

कहाँ गये
वे दिन सोने के
कहाँ गयीं
चाँदी की रातें
कहते-कहते थक जाते थे
थकती नहीं कभी थी बातें
वे बातें
खुशबू होती थीं
बातें वे
होती थी चन्दन
अपनी पूजा, अक्षत, दीपक
बातें ही थीं
अर्चन, वन्दन
शब्द-शब्द
जैसे आ भीतर
अन्तः पटल
उघार गया था।
बातें थीं प्राणों की धड़कन
बातें थीं साँसों की सरगम
बातें भीतर का मधुवन थीं
बातें थी अधरों की शबनम
बातों की वह कुलकन, पुलकन
कभी मौन के
वे व्याकुल क्षण
कभी सिमटते
कभी पसरते
अनुभावों के वे आकुंचन
उन बातों में
अनहद का स्वर
जैसे प्राण
पखार गया था।

अब बातें बातें हैं केवल
सूखे घाव हरे करती हैं
बोती हैं नफरत की फसलें
विष के कुटिल दंश धरती हैं
स्वर्ण कलश में भरा हलाहल
किससे कहें किसे समझाएँ
कोई हमें बताए
कब तक
कान बन्द कर चुप रह जाएँ
वह पुकार स्वर
संकल्पों पर धरकर
नूतन धार गया था।