भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहाँ जाएँगे उड़कर ... / निकलाय रुब्त्सोफ़ / अनिल जनविजय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम आज़ाद होंगे
पँछियों की तरह —
तुम फुसफुसाती हो
और उदास आँखों से
आकाश में उड़ते पक्षियों को देखती हो

पक्षी कैसे
उड़ते चले जाते हैं दूर तक
समुद्र के ऊपर
समुद्री झँझावातों के पार

मुझे भी घेर लेती है उदासी
पसन्द है मुझे भी वह

पर पँछी है वह
किसी दूसरी उड़ान का
साथ-साथ
हम भला कहाँ जाएँगे उड़कर ?

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय