भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहाँ जी पाते हैं ख़ुद से मसाफ़त जिनके मन में है / विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:45, 25 नवम्बर 2021 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कहाँ जी पाते हैं ख़ुद से , अदावत जिनके मन में है ,
वो अपने भी नहीं होते , सियासत जिनके मन में है ।

हमें तो इश्क़ है , हम तो उसी के दर पे बैठेंगे ,
वो बुतख़ाने चले जाएँ , इबादत जिनके मन में है ।

मुहब्बत से ही निकला है , मुदावा जब कभी निकला ,
कहाँ हल काेई दे पाते , तिजारत जिनके मन में है ।

हुकूमत की अटारी पर , धरम - ईमान गिरवी रख ,
सिंहासन पर वही बैठे कि नफ़रत जिनके मन में है ।

ये किस अलगाव की बच्चाें काे ही पट्टी पढ़ा डाली ,
वो उनके क्यों न हो जाएँ , बग़ावत जिनके मन में है ।

‘शलभ’ का इश्क़ देखो और ये दीवानगी देखो ,
उन्हीं के मन में जा बैठा , मसाफ़त जिनके मन में है ।