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कहीं इंजोर बा, कहीं अँधार हो जाला / सतीश्वर सहाय वर्मा ‘सतीश’

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कहीं इंजोर बा, कहीं अँधार हो जाला
कहीं उठल धुँआ, कहीं अंगार हो जाला

झनक के टूटि गइल, तार सजल बीना के
उदास तार कहीं तन सितार हो जाला

कहीं ई आँखि के आगी जरा गइल हियरा
कहीं नयन मिल नयन से पियार हो जाला

भरम में डालि के साथी कहीं रोआवेला
कहीं ई आँखि के मोती सिंगार हो जाला

बड़ा सम्हार के हिरदया में बात तोपल बा
अजब ‘सतीश’ के मन बेसम्हार हो जाला