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कहीं तो लेने दो विश्राम! / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

कहीं तो लेने दो विश्राम!
आँधी के उठ रहे बगूले, बड़ी कड़ी है घाम!
कहीं तो लेने दो विश्राम!

इस धरती पर सरस सलोना,
एक चाहिए कोमल कोना-
थकी पाँख ले जिधर उड़ सकूँ-जब हो जावे शाम!
कहीं तो लेने दो विश्राम!

दौड़ाओ मत जंगल-जंगल,
दौड़ाओ मत सिन्धु-मरुस्थल,
दौड़ाओ मत नगर-नगर नित, और ग्राम से ग्राम!
कहीं तो लेने दो विश्राम!

नहीं चाहिए घर कंचन के,
नील कमल नव नंदन वन के,
नहीं चाहिए-दूर कल्पना में बसते सुर-धाम!
कहीं तो लेने दो विश्राम!

मधुर जहाँ की चिकनी छाया-
सहला दे रे, दुखती काया!
कटें उसी विश्वास-कंुज में, जीवन के दो याम!
कहीं तो लेने दो विश्राम!