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कहीं पर सुब्ह रखता हूँ कहीं पर शाम रखता हूँ / अबरार अहमद

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कहीं पर सुब्ह रखता हूँ कहीं पर शाम रखता हूँ
फिर इस बे-रब्त से ख़ाके में ख़ुद से काम रखता हूँ

सलीक़े से मैं उस की गुफ़्तुगू का लुत्फ़ लेता हूँ
और उस के रू-ब-रू दिल में ख़याल-ए-ख़ाम रखता हूँ

ब-ज़ाहिर मद्ह से उस की कभी थकता नहीं लेकिन
दरून-ए-ख़ाना-ए-दिल ख़्वाहिश-दुश्नाम रखता हूँ

ख़ुश आई है अभी तो क़ैद-ए-ख़्वाहिश इस ख़राबे में
अभी ख़ुद को रहीन-ए-गर्दिश-ए-अय्याम रखता हूँ

सफ़र की सुब्ह में रँज-ए-सफ़र की धूल उड़ती है
हद-ए-आग़ाज़ में अन्देशा-ए-अँजाम रखता हूँ

फ़िराक़ ओ वस्ल से हट कर कोई रिश्ता हमारा है
कि उस को छोड़ पाता हूँ न उस को थाम रखता हूँ

दलील-ए-ख़्वाब-ए-मस्ती है तिरी आमादगी इम्शब
मगर इस शब में तुझ से और कोई काम रखता हूँ

तजावुज़ से भला कब तक गुज़र औक़ात मुमकिन थी
सो अपने ख़ून तक शोर-ए-दिल-ए-बदनाम रखता हूँ