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कहीं पे धूप / दुष्यंत कुमार

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लेखक: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=दुष्यंत कुमार]][[Category:कविताएँ]][[Category:|संग्रह=साये में धूप / दुष्यंत कुमार]]}}{{KKCatGhazal‎}}‎<poem>कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गएकहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए ।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखाबहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।
कहीं पे धूप खड़े हुए थे अलावों की चादर बिछा आंच लेने कोसब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए<br>कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।<br><br>
जले जो रेत में तलवे दुकानदार तो हमने ये देखा<br>मेले में लुट गए यारोंबहुत से लोग वहीं छटपटा तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।<br><br>गए ।
खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को<br>लहू लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तोसब अपनी अपनी हथेली जला शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।<br><br>गए ।
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों<br>तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।<br><br> लहू लुहान नज़रों का जिआया तो<br>शरीफ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।<br><br> ये सोच कर कि दरख्तों में छांव होती है<br>यहां यहाँ बबूल के साये साए में आके बैठ गए। <br>गए ।<br/poem>
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