भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"कही सुनी पे बहुत एतबार करने लगे / वसीम बरेलवी" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वसीम बरेलवी }} Category:ग़ज़ल <poem> कही सुनी पे बहुत एतब...)
 
पंक्ति 6: पंक्ति 6:
 
<poem>
 
<poem>
  
कही सुनी पे बहुत एतबार करने लगे
+
कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे
 
मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे
 
मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे
  

02:26, 24 जून 2009 का अवतरण


कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे
मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे

पुराने लोगों के दिल भी हैं ख़ुशबुओं की तरह
ज़रा किसी से मिले, एतबार करने लगे

नए ज़माने से आँखें नहीं मिला पाये
तो लोग गुज़रे ज़माने से प्यार करने लगे

कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे

हमारी सादामिजाज़ी की दाद दे कि तुझे
बगैर परखे तेरा एतबार करने लगे.