भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क़याम-गाह न कोई न कोई घर मेरा / अनवर जलालपुरी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:30, 2 जनवरी 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनवर जलालपुरी }} {{KKCatGhazal}} <poem> क़याम-गा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क़याम-गाह न कोई न कोई घर मेरा
अज़ल से ता-ब-अबद सिर्फ़ इक सफ़र मेरा

ख़िराज मुझ को दिया आने वाली सदियों ने
बुलन्द नेज़े पे जब ही हुआ है सर मेरा

अता हुई है मुझे दिन के साथ शब भी मगर
चराग़ शब में जिला देता है हुनर मेरा

सभी के अपने मसाइल सभी की अपनी अना
पुकारूँ किस को जो दे साथ उम्र भर मेरा

मैं ग़म को खेल समझता रहा हूँ बचपन से
भरम ये आज भी रख लेना चश्म-ए-तर मेरा

मिरे ख़ुदा मैं तिरी राह जिस घड़ी छोड़ूँ
उसी घड़ी से मुक़द्दर हो दर-ब-दर मेरा