Last modified on 8 जनवरी 2011, at 00:00

क़हते-बंगाल / त्रिलोकचन्‍द महरूम

दूसरे विश्‍व युद्ध के मौक़े पर

ग़ुलामी में नहीं है इनमें बचने का कोई चारा
यह लड़ते है जहाँ से और हम पर बोझ है सारा

बजाने के लिए अपनी जहाँगीरी का नक़्क़ारा
हमारी खाल खिंचवाते हैं, देखो तो यह नज़्ज़ारा

बज़ाहिर है करमपर्वर, ब बातिन हैं सितमआरा
यह अपनी ज़ात की ख़ातिर हैं सबकी जान के दुश्‍मन

हैं ख़ू आगाम हर हैवान के, इंसान के दुश्‍मन
कभी हैं चीन के दुश्‍मन, कभी ईरान के दुश्‍मन

हमारे दोस्‍त भी कब हैं, जो हैं जापान के दुश्‍मन
उसे बन्‍दूक़ से मारा तो हमको भूख से मारा