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क़ातिल तेरा निज़ाम... / सुरेश स्वप्निल

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कब तक तेरी अना से मेरा सर बचा रहे
ये भी तो कम नहीं कि मेरा घर बचा रहे

मुफ़्लिस को शबे-वस्ल पशेमाँ न कीजिए
मेहमाँ के एहतेराम को बिस्तर बचा रहे

रहियो मेरे क़रीब, मेरे घर के सामने
कुछ तो कहीं निगाह को बेहतर बचा रहे

बेशक़ दिले-ख़ुदा में ज़रा भी रहम न हो
आँखों में आदमी की समन्दर बचा रहे

मस्जिद न मुअज़्ज़िन न ख़ुदा हो कहीं मगर
मस्जूद की निगाह में मिम्बर बचा रहे

शाहों का बस चले तो ख़ुदा की क़सम मियाँ
क़ारीं बचें कहीं, न ये शायर बचा रहे

क़ातिल ! तेरा निज़ाम बदल कर दिखाएँगे
सीने में आग, हाथ में पत्थर बचा रहे !

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शब्दार्थ
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