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क़ातिल था, हर किसी का मसीहा बना रहा / कृष्ण 'कुमार' प्रजापति
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क़ातिल था, हर किसी का मसीहा बना रहा
जब तक रहा वो शहर में ख़तरा बना रहा
उसकी रगों में ख़ून था , हैवानियत का ख़ून
इंसानियत के हक़ में दरिंदा बना रहा
ख़ुद अपनी प्यास के लिए एक बंद भी नहीं
सारे जहाँ के वास्ते दरिया बना रहा
मजबूरियों के जिस्म पर बन्दर की खाल थी
बच्चों के वास्ते वो तमाशा बना रहा
मेरी मशक्क्तों में कमी कुछ न थी , मगर
घर भर पे बोझ मेरा बुढ़ापा बना रहा
बरबाद हो के रह गया दुनिया में वो ग़रीब
दौलत के हाथ का जो खिलौना बना रहा
क्या हो गया “कुमार” कि नज़रों से गिर गया
कल तक जो शख़्स सबका चहेता बना रहा