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क़ैदी के पत्र - 1 / नाज़िम हिक़मत

मेरी अन्यतमे,
तुमने पिछले ख़त में
लिखा है —
यदि वे तुम्हें फाँसी पर चढ़ा देंगे
यदि मैं तुम्हें खो दूँगी
तो मैं ज़िन्दा नहीं रह सकती।

जियोगी, जियोगी, प्रिये, तुम जीती ही रहोगी
मेरी याद हवा में काले धुएँ-सी मिट जाएगी
जियोगी, मेरे हृदय की अरुणकेशी सहोदरा।
बीसवीं सदी में
मृत व्यक्तियों के लिए रोने की
अवधि एक साल है।

मौत —
रस्सी के छोर से झूलता हुआ शव
मेरा हृदय कभी स्वीकार नहीं कर सकता
ऐसी मौत।

किन्तु यह विश्वास रखो, प्रिये,
यदि भालू जैसे हाथों वाला जल्लाद
मेरी गरदन में
रस्सी का फन्दा डाल कर ही रहे
तो भी इस नाज़िम की आँखों में
डर देखने की उनकी उम्मीद पर
पानी फिर जाएगा।
मैं अपनी ज़िन्दगी की आख़िरी भोर में
अपने दोस्तों को तुम्हें देखूँगा
और मैं अपने साथ
क़ब्र में ले जाऊँगा
अधूरे गीत का एक ही अफ़सोस।

संगिनी, प्रिये,
कोमल-हृदय मौना,
मधु से भी मधुरनयना,
भूल हुई जो तुम्हें लिख दिया
कि वे मुझे फाँसी देने पर तुले हैं,
अभी तो मुक़दमे की शुरूआत हो रही
और उन्हें आदमी का सिर उतारना है,
आसान नहीं, कोई शलजम नहीं उखाड़ना है।

इस बात की चिन्ता तुम छोड़ दो,
यह तो बड़ी दूर की बात है,
हाँ, अगर पास कुछ पैसे हों
तो फ़लालैन की पट्टियाँ मेरे लिए ले लेना,
मेरे पैरों में वातशूल है
और यह कभी मत भूलना
क़ैदी की औरत को हमेशा ही होता है
ख़ुश रहना।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : चन्द्रबली सिंह