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क़ैद / मख़दूम मोहिउद्दीन

क़ैद है क़ैद की मीयाद नहीं
जौर है जौर<ref>अत्याचार</ref> की फ़रियाद नहीं, दाद नहीं
रात है, रात की ख़ामूशी है, तन्हाई है
दूर महबस की फसीलों<ref>जेल की चारदीवारी</ref> से बहुत दूर कहीं
सीन-ए-शहर की गहराई से घंटों की सदा आती है
चौंक जाता है दिमाग़
झिलमिला जाती है अन्फास<ref>सेंट्रल जेल हैदराबाद दक्कन</ref> की लौ
जाग उठती है मेरे शम्से शबिस्ताने ख़याल<ref>रात के विचारों की शम्मा</ref>
ज़िन्दगानी की इक-इक बात की याद आती है
शाहराहों में गली-कूचों में इंसानों की भीड़
उनके मसरूफ़ क़दम
उनके माथे पर तरद्दुद<ref>चिंता</ref> के नक्रूश
उनकी आँखों में ग़मे दोश<ref>गुज़री हुई रात</ref> और अन्देश-ए-फ़र्दा<ref>आने वाले कल की आशंका</ref> का ख़्याल
सैकड़ो-लाखों क़दम
सैकड़ों-लाखों अवाम
सैकड़ों-लाखों धड़कते हुए इंसानों के दिल
जौरे शाही से ग़मीं जब्रे सियासत से निढाल
जाने किस मोड़ पे ये धन से धमाका हो जाए
सालहा साल की अफ़सुर्दा<ref>उदास</ref> व मज़बूर जवानी की उमंग
तौक़<ref>बंदियों के गले की हँसली</ref>-ओ-ज़ंजीर से लिपटी हुई सो जाती है
करवटें लेने में ज़ंजीर की झंकार का शोर
ख़्वाब में ज़ीस्त की शोरिश<ref>विद्रोह</ref> का पता देता है
मुझे ग़म है के मेरा गंजगराँमाए उम्र<ref>बहुमूल्य आयु की निधि</ref>
नज़रे ज़िंदा हुआ
नज़रे आजादिए ज़िंदाने वतन क्यों न हुआ ।

शब्दार्थ
<references/>