भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काँधे कान्ह कमरिया कारी, लकुट लिए कर घेरै हो / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:15, 18 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काँधे कान्ह कमरिया कारी, लकुट लिए कर घेरै हो ।
बृंदाबन मैं गाइ चरावै, धौरी, धूमरि टेरै हो ॥
लै लिवाइ ग्वालनि बुलाइ कै, जहँ-जहँ बन-बन हेरै हो ।
सूरदास प्रभु सकल लोकपति, पीतांबर कर फेरै हो ॥


भावार्थ :-- कन्हाई कंधे पर काला कम्बल और हाथ में छड़ी लेकर गायें हाँकता है ।वृन्दावन में वह गायें चराता है और `धौरी', `धूमरी' इस प्रकार नाम ले-लेकर उन्हें पुकारता है । गोपकुमार को पुकार कर साथ लेकर -लिवाकर जहाँ-तहाँ वन-वनमें उन (गायों)को ढूँढ़ता है । सूरदास का यह स्वामी समस्त लोकों का नाथ होने पर भी हाथ से पीताम्बर(पटुका) उड़ा रहा है । (इस संकेत से गायों को बुला रहा है ।)