भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काँपे अंतर्तम / अवनीश त्रिपाठी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

टेर लगाती
मौसम के
पीछे पीछे हरदम
पुरवाई की
आँखें भी अब
हो आईं पुरनम।

प्यास अनकही
दिन भर ठहरी
अब तो साँझ हुई
कोख हरी
होने की इच्छा
लेकिन बाँझ हुई।

अंधियारे का
रिश्ता लेकर
द्वार खड़ी रातें
ड्योढ़ी पर
जलते दीपक की
आस हुई अब कम।

उपजे कई
नए संवेदन
हरियर प्रत्याशा में
ठूंठ हुए
सन्तापों वाले
पेड़ कटे आशा में

भूख किताबी
बाँच रही अब
चूल्हे का संवाद
देह बुढ़ापे की
लाठी पर
काँपे अंतर्तम।