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काग़ज़ की कश्तियों में रखते हैं चाँदनी को / ज्ञान प्रकाश विवेक

काग़ज़ की कश्तियों में रखते हैं चाँदनी को
बहला रहे हैं बच्चे सूखी हुई नदी को

छतरी किताब ,ऐनक़ सब छोड़ आया अक्सर
पर आज भूल आया हूँ मैं तो ज़िन्दगी को

हाथों पे रख के रोटी खाना है उसकी आदत
वो क्या करेगा तेरी चाँदी की तश्तरी को

गुम हो चुके पिता-सा वो लग रहा था मुझको
मैं देखता रहा था, उस बूढ़े आदमी को

माना नहीं है अच्छा यूँ फूळ तोड़ लाना
लेकिन तू बालकों की महसूश कर ख़ुशी को

ख़ाली सुराहियों को रखता है मेरे आगे
कुछ तो समझ रहा है वो मेरी तिश्नगी को.