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काजल की कोठरी में मैं / जगदीश चंद्र ठाकुर

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काजल की कोठरी में मैं
और मेरे साथ मेरा मन |
अनगिनत मछलियां और कुछ मछेरे
चल रहे हैं साथ-साथ साँझ और सबेरे
मछलियों की कोठरी में मैं
और मेरे साथ मेरा मन |
एक ओर पर्वत और एक ओर कूआँ
नजर जिधर जाए उधर धूआँ ही धूआँ
धुएँ के आर-पार मैं
और मेरे साथ मेरा मन |
मूंद लीं आँखें तो नाच उठे कोयल
नाच उठे भौंरे और खिल गए फूल
फूलों की टोकड़ी में मैं
और मेरे साथ मेरा मन |