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कान्ह-दूत कैंधौं ब्रह्म-दूत ह्वै पधारे आप / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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कान्ह-दूत कैंधौं ब्रह्म-दूत ह्वै पधारे आप,
धारे प्रन फेरन को मति ब्रजवारी की ।
कहै रतनाकर पै प्रीति रीति जानत ना,
ठानत अनीति आनि नीति लै अनारी की ॥
मान्यौ हम, कान्ह ब्रह्म एक ही, कह्यौ जो तुम,
तौहूँ हमें भावति ना भावना अन्यारी की ।
जैहे बनि बिगरि न वारिधिता वारिधि की,
बूँदता बिलैहैं बूँद बिबस बिचारी की ॥37॥